कब इस ज़मीं पे मुझे आर्मीदा होना था
हवा से ख़ाक को बरसों परीदा होना था
अगर थी दामन-ए-जानाँ की आरज़ू ऐ दिल
तो चंद दम के लिए आब-दीदा होना था
किसी के चेहरे पे होता किसी के दामन में
मुझे भी आँख का अश्क-ए-चकीदा होना था
कभी न ख़िदमत-ए-दामन से सरफ़राज़ हुआ
वो हाथ हूँ कि जिसे ना-रसीदा होना था
कमाल-ए-बे-अदबी से ये अर्ज़ करते हैं
हमीं से ऐ क़द-ए-जानाँ कशीदा होना था
अगर थी लज़्ज़त-ए-पामाल की हवस ऐ दिल
ब-शक्ल-ए-सब्ज़ा ज़मीं पर दमीदा होना था
अजब न था कि उसे रहम कुछ न कुछ आता
मेरी उमीद तुझे अब्र-दीदा होना था
कमाल-ए-रब्त में होती हैं सैकड़ों बातें
न इस क़दर तुम्हें हम से कशीदा होना था
तिरा जमाल बना मैं कभी, कभी एहसाँ
ग़रज़ ये थी कि मुझे बरगुज़ीदा होना था
खुली अब आँख तो क्या फ़ाएदा 'नसीम' अफ़सोस
न समझे ज़ेर-ए-लहद आर्मीदा होना था
ग़ज़ल
कब इस ज़मीं पे मुझे आर्मीदा होना था
नसीम देहलवी