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कब इस ज़मीं पे मुझे आर्मीदा होना था | शाही शायरी
kab is zamin pe mujhe aarmida hona tha

ग़ज़ल

कब इस ज़मीं पे मुझे आर्मीदा होना था

नसीम देहलवी

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कब इस ज़मीं पे मुझे आर्मीदा होना था
हवा से ख़ाक को बरसों परीदा होना था

अगर थी दामन-ए-जानाँ की आरज़ू ऐ दिल
तो चंद दम के लिए आब-दीदा होना था

किसी के चेहरे पे होता किसी के दामन में
मुझे भी आँख का अश्क-ए-चकीदा होना था

कभी न ख़िदमत-ए-दामन से सरफ़राज़ हुआ
वो हाथ हूँ कि जिसे ना-रसीदा होना था

कमाल-ए-बे-अदबी से ये अर्ज़ करते हैं
हमीं से ऐ क़द-ए-जानाँ कशीदा होना था

अगर थी लज़्ज़त-ए-पामाल की हवस ऐ दिल
ब-शक्ल-ए-सब्ज़ा ज़मीं पर दमीदा होना था

अजब न था कि उसे रहम कुछ न कुछ आता
मेरी उमीद तुझे अब्र-दीदा होना था

कमाल-ए-रब्त में होती हैं सैकड़ों बातें
न इस क़दर तुम्हें हम से कशीदा होना था

तिरा जमाल बना मैं कभी, कभी एहसाँ
ग़रज़ ये थी कि मुझे बरगुज़ीदा होना था

खुली अब आँख तो क्या फ़ाएदा 'नसीम' अफ़सोस
न समझे ज़ेर-ए-लहद आर्मीदा होना था