कब अपने होने का इज़हार करने आती है
ये आग मुझ को नुमूदार करने आती है
मैं दिन में ख़्वाब बनाता हूँ रंग रंग के ख़्वाब
मगर ये रात उन्हें मिस्मार करने आती है
अँधेरा जाता है जब भी उलट-पलट के मुझे
तो रौशनी मुझे हमवार करने आती है
हवा-ए-कूचा-ए-दुनिया मैं जानता हूँ तुझे
तू जब भी आती है बीमार करने आती है
जो दिल से होती हुई आ रही है मेरी तरफ़
ये लहर मुझ को ख़बर-दार करने आती है

ग़ज़ल
कब अपने होने का इज़हार करने आती है
काशिफ़ मजीद