कारज़ार-ए-ज़िंदगी में ऐसे लम्हे आ गए
अज़्म-ए-मोहकम रखने वाले वक़्त से घबरा गए
दूसरों के वास्ते जीते रहे मरते रहे
ख़ूब-सीरत लोग थे राज़-ए-मोहब्बत पा गए
बाग़ पर बिजली गिरे या नज़्र-ए-गुलचीं हो रहे
आह अब सोचों के धारे इस नहज पर आ गए
इस झुलसती धूप ने आख़िर कहाँ पहुँचा दिया
छाँव की ख़ातिर पस-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ आ गए
वाए महरूमी कि बस हम आसमाँ तकते रहे
यूँ तो बादल घिर के आए हसरतें बरसा गए
दिल की शादाबी की ख़ातिर दिल की तस्कीं के लिए
'रिज़वी'-ए-मुज़्तर कभी मक्का कभी मथुरा गए
ग़ज़ल
कारज़ार-ए-ज़िंदगी में ऐसे लम्हे आ गए
हयात रिज़वी अमरोहवी