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काम हैं और ज़रूरी कई करने के लिए | शाही शायरी
kaam hain aur zaruri kai karne ke liye

ग़ज़ल

काम हैं और ज़रूरी कई करने के लिए

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

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काम हैं और ज़रूरी कई करने के लिए
कौन बैठा है तिरे इश्क़ में मरने के लिए

रात गुज़रे हुए ख़्वाबों की रिदा ओढ़े थी
सुबह-ए-ताबीर के चिलमन पे बिखरने के लिए

ईस्तादा थे सितारे तिरी दहलीज़ के साथ
चाँद बे-चैन था आँगन में उतरने के लिए

दस्त-ए-फ़न-कार की फ़नकारी का आलम ये हो
नक़्श बे-चैन हो पत्थर पे उभरने के लिए

कोई मंज़िल तो मिले आबला-पाई के तुफ़ैल
कोई सूरत तो बने चेहरा सँवरने के लिए

इस हुजूम-ए-कस-ओ-ना-कस को भी जाना है कहीं
रास्ता दीजिए इस को भी गुज़रने के लिए