काम हैं और ज़रूरी कई करने के लिए
कौन बैठा है तिरे इश्क़ में मरने के लिए
रात गुज़रे हुए ख़्वाबों की रिदा ओढ़े थी
सुबह-ए-ताबीर के चिलमन पे बिखरने के लिए
ईस्तादा थे सितारे तिरी दहलीज़ के साथ
चाँद बे-चैन था आँगन में उतरने के लिए
दस्त-ए-फ़न-कार की फ़नकारी का आलम ये हो
नक़्श बे-चैन हो पत्थर पे उभरने के लिए
कोई मंज़िल तो मिले आबला-पाई के तुफ़ैल
कोई सूरत तो बने चेहरा सँवरने के लिए
इस हुजूम-ए-कस-ओ-ना-कस को भी जाना है कहीं
रास्ता दीजिए इस को भी गुज़रने के लिए
ग़ज़ल
काम हैं और ज़रूरी कई करने के लिए
ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद