काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
उस बेवफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझ को ये ए'तिराफ़ दुआओं में है असर
जाएँ न अर्श पर जो दुआएँ तो क्या करें
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों दिल पे रोज़ बलाएँ तो क्या करें
ज़ुल्मत-ब-दोश है मिरी दुनिया-ए-आशिक़ी
तारों की मिशअले न चुराएँ तो क्या करें
शब भर तो उन की याद में तारे गिना किए
तारे से दिन को भी नज़र आएँ तो क्या करें
अहद-ए-तरब की याद में रोया किए बहुत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
अब जी में है कि उन को भुला कर ही देख लें
वो बार बार याद जो आएँ तो क्या करें
वअ'दे के ए'तिबार में तस्कीन-ए-दिल तो है
अब फिर वही फ़रेब न खाएँ तो क्या करें
तर्क-ए-वफ़ा भी जुर्म-ए-मोहब्बत सही मगर
मिलने लगें वफ़ा की सज़ाएँ तो क्या करें
ग़ज़ल
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
अख़्तर शीरानी