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काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए | शाही शायरी
kafir banunga kufr ka saman to kijiye

ग़ज़ल

काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए

जोश मलीहाबादी

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काफ़िर बनूँगा कुफ़्र का सामाँ तो कीजिए
पहले घनेरी ज़ुल्फ़ परेशाँ तो कीजिए

उस नाज़-ए-होश को कि है मूसा पे ताना-ज़न
इक दिन नक़ाब उलट के पशीमाँ तो कीजिए

उश्शाक़ बंदगान-ए-ख़ुदा हैं ख़ुदा नहीं
थोड़ा सा नर्ख़-ए-हुस्न को अर्ज़ां तो कीजिए

क़ुदरत को ख़ुद है हुस्न के अल्फ़ाज़ का लिहाज़
ईफ़ा भी हो ही जाएगा पैमाँ तो कीजिए

ता-चंद रस्म-ए-जामा-दरी की हिकायतें
तकलीफ़ यक-तबस्सुम-ए-पिन्हाँ तो कीजिए

यूँ सर न होगी 'जोश' कभी इश्क़ की मुहिम
दिल को ख़िरद से दस्त-ओ-गरेबाँ तो कीजिए