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काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में | शाही शायरी
kabe se mujhko lae sawad-e-kunisht mein

ग़ज़ल

काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में

मुनीर शिकोहाबादी

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काबे से मुझ को लाए सवाद-ए-कुनिश्त में
इस्लाह दी बुतों ने ख़त-ए-सर-नविश्त में

फिरते हैं कूचा-ए-बुत-ए-क़ुदसी-सरिश्त में
दीवाने लातें मार रहे बहिश्त में

कफ़्फ़ारा-ए-शराब मैं देता हूँ नक़्द-ए-होश
सरगर्म हूँ तलाफ़ी-ए-आमाल-ए-ज़िश्त में

अक्सर जज़ा-ए-सज्दा में खानी हैं ठोकरें
लिक्खा है क्या ख़त-ए-कफ़-ए-पा सरनविश्त में

हूरों से गर्मियाँ जो कहूँ उस शरीर की
लग जाए आग आतिश-ए-गुल से बहिश्त में

सुनती है रोज़ नग़्मा-ए-ज़ंजीर-ए-आशिक़ाँ
वो ज़ुल्फ़ भी है सिलसिला-ए-अहल-ए-चिश्त में

ज़िंदाँ से आँखें सेंकने उस गुल के घर गए
दोज़ख़ से आग लेने चले हम बहिश्त में

बेगाने इक हमीं नज़र आए पस-ए-फ़ना
बेदर्दों का हुजूम है बाग़-ए-बहिश्त में

बुत-ख़ाने में सफ़ेदी-ए-हुस्न-ए-फ़रंग है
गिरजे की रौशनी है सवाद-ए-कुनिश्त में

जल जल के ख़ाक होते हैं बे-अश्क-ओ-आह हम
आब-ओ-हवा नहीं है हमारी सरिश्त में

गर्मी में तेरे कूचा-नशीनों के वास्ते
पंखे हैं क़ुदसियों के परों के बहिश्त में

सोना कसाऊँ अशरफ़ी-ए-दाग़-ए-सज्दा का
संग-ए-महक लगाऊँ बिना-ए-कुनिश्त में

बिजली चमक गई जो हँसी में फड़क गए
शोख़ी भरी हुई है तुम्हारी सरिश्त में

तस्वीरें तेरी दस्त-ए-हिनाई की ले गए
छापे लहू के हम ने लगाए बहिश्त में

करती हैं ख़ून चर्ख़ बुतों की तअल्लियाँ
रंग-ए-शफ़क़ लगाती है सक़्फ़-ए-कुनिश्त में

अब्र-ए-बहार जौहर-ए-शमशीर-ए-यार थे
गुलहा-ए-ज़ख़्म खिल गए उरदी-बहिश्त में

तक़दीर में है तेरी दहान-ओ-कमर का इश्क़
सिर्र-ए-निहाँ लिखा है मिरी सरनविश्त में

दी जान एक हूर के बोसे की चाट पर
क़िस्मत ने मुझ को ज़हर दिया है बहिश्त में

चोरों से गुफ़्तुगू-ए-ख़त-ए-सब्ज़-ए-यार है
तूती किसी का बोल रहा है बहिश्त में

अदना ग़ुलाम-ए-शाह-ए-विलायत हुए 'मुनीर'
दश्त-ए-नजफ़ की ख़ाक है मेरी सरिश्त में