जुज़ क़ुर्बत-ए-जाँ पर्दा-ए-जाँ कोई नहीं था
वो था तो वहाँ और जहाँ कोई नहीं था
था एक ख़याल और ख़याल-ए-रुख़-ए-जानाँ
वो वाहिमा-ए-वहम-ओ-गुमाँ कोई नहीं था
इक साअत-ए-सद-साल में ठहरा था कहीं दिल
फिर क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ कोई नहीं था
था कोई वहाँ जो है यहाँ भी है वहाँ भी
जो हूँ मैं यहाँ हूँ मैं वहाँ कोई नहीं था
सद-शुक्र ज़माने को न था गोश-ए-समाअत
हम को भी मगर रब्त-ए-ज़बाँ कोई नहीं था
ग़ज़ल
जुज़ क़ुर्बत-ए-जाँ पर्दा-ए-जाँ कोई नहीं था
इफ्तिखार शफ़ी