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जूँ ज़र्रा नहीं एक जगह ख़ाक-नशीं हम | शाही शायरी
jun zarra nahin ek jagah KHak-nashin hum

ग़ज़ल

जूँ ज़र्रा नहीं एक जगह ख़ाक-नशीं हम

शाह नसीर

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जूँ ज़र्रा नहीं एक जगह ख़ाक-नशीं हम
ऐ महर-ए-जहाँ-ताब जहाँ तू है वहीं हम

शब हल्क़ा-ए-रिन्दाँ में अजब सैर थी साक़ी
साग़र को समझते थे मह-ए-हाला-नशीं हम

सेते हैं सदा रश्क-ए-अतू-ए-क़लमी देख
हर तार-ए-सरिश्क अपने से दामान-ए-ज़मीं हम

ऐ रश्क-ए-नसीम-ए-सहरी क्यूँ है मुकद्दर
गुलशन में तुझे देखते हैं चीं-ब-जबीं हम

बरपा न कहीं कीजे अब शोर-ए-क़यामत
वहशत-ज़दा ऐ ख़ाना-ए-ज़ंजीर नहीं हम

सर-रिश्ता रह-ए-इश्क़ का अब हाथ लगा है
जूँ दाना-ए-तस्बीह न ठहरेंगे कहीं हम

ले कर मह-ओ-ख़ुर्शीद की फिर तेग़-ओ-सिपर को
ऐ चर्ख़ तुझे जानते हैं बर-सर-ए-कीं हम

यक दस्त उठा लेवेंगे इस सफ़्हा-ए-दिल पर
नक़्श-ए-क़दम-ए-यार को जूँ नक़्श ओ नगीं हम

ईसा-नफ़स अब जल्द पहुँच तू कि हैं तुझ बिन
मेहमान कोई दम के दम-ए-बाज़-पसीं हम

खो बैठे हैं उस इश्क़ के हाथों से 'नसीर' अब
होश-ओ-ख़िरद ओ सब्र-ओ-क़रार ओ दिल-ओ-दीं हम