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जुस्तुजू उन की दर-ए-ग़ैर पे ले आई है | शाही शायरी
justuju unki dar-e-ghair pe le aai hai

ग़ज़ल

जुस्तुजू उन की दर-ए-ग़ैर पे ले आई है

कँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर

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जुस्तुजू उन की दर-ए-ग़ैर पे ले आई है
अब ख़ुदा जाने कहाँ तक मिरी रुस्वाई है

दिल अभी माइल-ए-सद-बादिया-ए-पैमाई है
क्यूँ अबस अहल-ए-चमन अंजुमन आराई है

हम क़फ़स वालों को इतना तो बता दे कोई
क्या ये सच है कि गुलिस्ताँ में बहार आई है

तेरे ग़म से मुझे इमदाद मिली है अक्सर
जब तबीअत ग़म-ए-अय्याम से घबराई है

ख़ंदा-ए-गुल भी वही गिर्या-ए-शबनम भी वही
हम तो समझे थे नए ढब से बहार आई है

इस में तस्कीन का पहलू न कहीं मख़्फ़ी हो
अब तबीअत नए अंदाज़ से घबराई है

क्या सितम है कि तिरी ऐश भरी दुनिया में
तेरा दीवाना असीर-ए-ग़म-तन्हाई है

ये भी सच है कि तमन्ना ही है बाइस ग़म का
ये भी तस्लीम कि हर शख़्स तमन्नाई है

मस्त ओ दीवाना ओ मज्ज़ूब पे हँसने वालो
तुम तमाशा जिसे समझे हो तमाशाई है

एक दुनिया है कि हंगामा ही हंगामा है
और इक मैं हूँ कि तन्हाई ही तन्हाई है

ऐन मुम्किन है कि मुझ ही में कमी हो लेकिन
सामने आए मोहब्बत जिसे रास आई है

उन से मिलते ही मिरे दिल ने किया ये महसूस
जैसे सदियों से मिरी उन की शनासाई है