जुस्तुजू ने तिरी हर चंद थका रक्खा है
फिर भी क्या ग़म कि इसी में तो मज़ा रक्खा है
कुछ तो अपनी भी तबीअ'त है गुरेज़ाँ उन से
कुछ मिज़ाज उन का भी बर-दोश-ए-हवा रक्खा है
क्या तुझे इल्म नहीं तेरी रज़ा की ख़ातिर
मैं ने किस किस को ज़माने में ख़फ़ा रक्खा है
जब नज़र उट्ठी रुख़-ए-यार पे जा कर ठहरी
जैसे आँखों में कोई क़िबला-नुमा रक्खा है
कौन हूँ क्या हूँ कहाँ हूँ मुझे मालूम नहीं
ज़िंदगी तू ने ये किस मोड़ पे ला रक्खा है
नाम का अक्स भी आईना-ए-किरदार में रख
नाम 'अख़लाक़' सही नाम में क्या रक्खा है
ग़ज़ल
जुस्तुजू ने तिरी हर चंद थका रक्खा है
अख़लाक़ बन्दवी