जुनूँ की राख से मंज़िल में रंग क्या आए
मता-ए-दर्द तो हम राह में लुटा आए
वो गर्द उड़ाई किसी ने कि साँस घुटने लगी
हटे ये राह से दीवार तो हवा आए
किसी मक़ाम-ए-तमन्ना से जब भी पलटे हैं
हमारे सामने अपने ही नक़्श-ए-पा आए
नुमू के बोझ से शाख़ें न टूट जाएँ कहीं
तुम आओ तो कोई ग़ुंचा खिले सबा आए
ये दिल की प्यास ये दुनिया के फ़ासले 'बाक़ी'
बहुत क़रीब से अब तो कोई सदा आए
ग़ज़ल
जुनूँ की राख से मंज़िल में रंग क्या आए
बाक़ी सिद्दीक़ी