जुनून-ए-इश्क़ की रस्म-ए-अजीब क्या कहना
मैं उन से दूर वो मेरे क़रीब क्या कहना
ये तीरगी-ए-मुसलसल में एक वक़्फ़ा-ए-नूर
ये ज़िंदगी का तिलिस्म-ए-अजीब क्या कहना
जो तुम हो बर्क़-ए-नशेमन तो मैं नशेमन-ए-बर्क़
उलझ पड़े हैं हमारे नसीब क्या कहना
हुजूम-ए-रंग फ़रावाँ सही मगर फिर भी
बहार नौहा-ए-सद अंदलीब क्या कहना
हज़ार क़ाफ़िला-ए-ज़िंदगी की तीरा-शबी
ये रौशनी सी उफ़ुक़ के क़रीब क्या कहना
लरज़ गई तिरी लौ मेरे डगमगाने से
चराग़-ए-गोशा-ए-कू-ए-हबीब क्या कहना
ग़ज़ल
जुनून-ए-इश्क़ की रस्म-ए-अजीब क्या कहना
मजीद अमजद

