EN اردو
जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ | शाही शायरी
juda bhi ho ke wo ek pal kabhi juda na hua

ग़ज़ल

जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ

बशीर अहमद बशीर

;

जुदा भी हो के वो इक पल कभी जुदा न हुआ
ये और बात कि देखे उसे ज़माना हुआ

न पूछ मेरा पता मौजा-ए-हवा हूँ मैं
भला हवा का भी कोई कभी ठिकाना हुआ

हर एक सम्त सहीफ़े खुले पड़े थे यहाँ
तिरा नसीब कि तू हर्फ़-आशना न हुआ

पनाह मिलती किसे मेरी किबरियाई से
ख़ुदा का शुक्र मैं बंदा हुआ ख़ुदा न हुआ

इस अपनी खोज में क्या क्या खुले न भेद मगर
मैं हूँ भी या कि नहीं मुझ पे आइना न हुआ

निदा-ए-ग़ैब थी तेरी सदा थी धड़कन थी
मिरे शुऊ'र से इतना भी फ़ैसला न हुआ

शजर तो राह का साया हैं उन को क्या मालूम
कहाँ से आया मुसाफ़िर किधर रवाना हुआ

फ़क़ीर हो के लिया तू ने क्या 'बशीर' कि जब
गलीम-पोश भी तू हो के बा-सफ़ा न हुआ