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जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें | शाही शायरी
josh par thin sifat-e-abr-e-bahaari aankhen

ग़ज़ल

जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें

तअशशुक़ लखनवी

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जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें
ब गईं आँसुओं के साथ हमारी आँखें

हैं जिलौ में सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें
उठने देती हैं कहाँ गर्द-ए-सवारी आँखें

क्यूँ असीरान-ए-क़फ़स की तरफ़ आना छोड़ा
फेर लीं तू ने भी ऐ बाद-ए-बहारी आँखें

सामने आ गई गुल-गश्त में नर्गिस शायद
पलकों से चीं-ब-जबीं हैं जो तुम्हारी आँखें

क्या दुर्र-ए-अश्क से हैं दामन-ए-मिज़्गाँ ममलू
कब ज़बाँ है कि करें शुक्र-गुज़ारी आँखें

देखते हैं तरफ़-ए-चाह-ए-ज़क़न उल्फ़त से
मुफ़्त में हम को डुबोती हैं हमारी आँखें

शोख़ियाँ आहुओं की ज़ेहन में कब आती हैं
कुछ दिनों हम ने भी देखी थीं तुम्हारी आँखें

क़तरा-ए-आब को मुहताज किया गर्दूं ने
याद-ए-अय्याम कि थीं चश्मा-ए-जारी आँखें

दूर से देख के तुम को कोई जी भरता है
कर रही हैं फ़क़त अय्याम-गुज़ारी आँखें

अब्र को देख के हर मर्तबा जोश आता है
अब तो आईं हैं मिरे ज़ब्त से आरी आँखें

जब हटा आइना आगे से हुईं क्या बेचैन
अपने पर आप ही आशिक़ हैं तुम्हारी आँखें

लुत्फ़ देखा न किसी चीज़ का अश्कों के सिवा
आईं थीं रोने को दुनिया में हमारी आँखें

कहती है भर के दम-ए-सर्द ख़िज़ाँ में बुलबुल
ढूँढती हैं तुझे ऐ फ़स्ल-ए-बहारी आँखें

तुम को शर्म आती है हम क़ाबिल-ए-नज़्ज़ारा नहीं
न रहा हुस्न तुम्हारा न हमारी आँखें

क्यूँ चरागाह-ए-ग़ज़ालाँ न कहूँ पलकों को
फिर रही हैं मेरी नज़रों में तुम्हारी आँखें

रोऊँ किस वास्ते गर सामने आना छोड़ा
आप को हुस्न है प्यारा मुझे प्यारी आँखें

कोर हो जाऊँ मगर इश्क़ में रोने को न रोक
नासेहा दिल से ज़ियादा नहीं प्यारी आँखें

सैकड़ों शीशा-ए-दिल बादा-कशों के तोड़े
मोहतसिब से हैं ज़ियादा वो ख़ुमारी आँखें

फूल नर्गिस के गिरे शाख़ से डाली जो नज़र
तेरी आँखों की इताअत में हैं सारी आँखें

फ़र्श हो जाती हैं तुम पाँव जहाँ रखते हो
अदब-आमोज़-ए-मोहब्बत हैं हमारी आँखें

ब'अद मुद्दत के ज़रा होश में आया हूँ आज
फिर दिखा दे मुझे साक़ी वो ख़ुमारी आँखें

अश्क-ए-ख़ूनीं से असीरी में उठा लुत्फ़-ए-बहार
है क़फ़स रश्क-ए-चमन अबर-ए-बहारी आँखें

क्या करें बज़्म-ए-हसीनाँ में 'तअश्शुक़' जा कर
न रहीं क़ाबिल-ए-नज़्ज़ारा हमारी आँखें