जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है
ये पानी मुद्दतों से बह रहा है
मिरे अंदर हवस के पत्थरों को
कोई दीवाना कब से सह रहा है
तकल्लुफ़ के कई पर्दे थे फिर भी
मिरा तेरा सुख़न बे-तह रहा है
किसी के ए'तिमाद-ए-जान-ओ-दिल का
महल दर्जा-ब-दर्जा ढह रहा है
घरौंदे पर बदन के फूलना क्या
किराए पर तू इस में रह रहा है
कभी चुप तो कभी महव-ए-फ़ुग़ाँ दिल
ग़रज़ इक गोमगो में ये रहा है
ग़ज़ल
जो उतरा फिर न उभरा कह रहा है
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी