जो उन से कहो वो यक़ीं जानते हैं
वो ऐसे हैं कुछ भी नहीं जानते हैं
बड़े जन्नती हैं ये मय-ख़्वार ज़ाहिद
मय-ए-तल्ख़ को अंग्बीं जानते हैं
जवानी ख़ुद आती है सौ हुस्न ले कर
जवाँ कोई हो हम हसीं जानते हैं
शब-ए-माह बनती है हर शब मिरे घर
ये सब बादा-वश मह-जबीं जानते हैं
बनावट भी इक फ़न है जो जानता हो
तिरी सादगी कुछ हमीं जानते हैं
निगाहें न आँखों के घुँघट से निकलें
अदाएँ ग़ज़ब शर्मगीं जानते हैं
तिरी कम-निगाही से उभरे हैं फ़ित्ने
तुझे ग़ैर चीं-बर-जबीं जानते हैं
मिरी जान पर रात बन बन गई है
मिरा हाल कुछ हम-नशीं जानते हैं
जो वाक़िफ़ नहीं लुत्फ़-ए-तज्दीद से कुछ
वो तौबा की लज़्ज़त नहीं जानते हैं
वो शर्मीली आँखें वो शर्मीली बातें
वो हँसना भी खुल कर नहीं जानते हैं
मिरी बुत-परस्ती भी है हक़-परस्ती
मिरा मर्तबा अहल-ए-दीं जानते हैं
बड़े पाक तीनत बड़े साफ़ बातिन
'रियाज़' आप को कुछ हमीं जानते हैं
ग़ज़ल
जो उन से कहो वो यक़ीं जानते हैं
रियाज़ ख़ैराबादी