जो तू मेरा मुक़द्दर बनते बनते रह गया है
समझ ले, कुछ कहीं पर बनते बनते रह गया है
ये दिल के ज़ख़्म तो वैसे के वैसे ही हरे हैं
कि तेरा लम्स मंतर बनते बनते रह गया है
मैं तेरी दूरी-ओ-क़ुर्बत से आगे आ गई हूँ
सो तेरा नक़्श दिल पर बनते बनते रह गया है
अजब ही क्या है जो मुझ को नहीं तू मिल सका तो
मिरा हर काम अक्सर बनते बनते रह गया है
कहानी इब्तिदा ही से बहुत उलझी हुई थी
सभी कुछ इस में बेहतर बनते बनते रह गया है

ग़ज़ल
जो तू मेरा मुक़द्दर बनते बनते रह गया है
नाहीद विर्क