जो तिरी नज़र में पिन्हाँ न ये ए'तिबार होता
मिरी जाँ ग़ुबार होती मिरा दिल मज़ार होता
कहीं हम भी ढूँड लेते कोई आफ़ियत का उनवाँ
ये जो बे-क़रार दिल है इसे गर क़रार होता
कोई रम्ज़-दीद होता कि बहाना-ए-सुकूँ हो
मिरी आरज़ू बहलती अगर इंतिज़ार होता
ये शबान-ए-हिज्र कटतीं ये दिल-ए-हज़ीं बहलता
जो सहर के आइने में कहीं रू-ए-यार होता
कभी शाख़-ए-गुल लचक कर ख़बर-ए-बहार देती
कहीं सुरमई फ़ज़ा में कोई नग़्मा-बार होता
न जो दिल के आसमाँ पर कोई बर्क़ सी लपकती
ग़म-ए-मर्ग-ए-आरज़ू ही मिरा ग़म-गुसार होता
तिरी बे-रुख़ी पे खुलता कभी दर्द-ए-दिल का मज़मूँ
न ये हर्फ़-ए-मुख़्तसर गर तिरे दिल पे बार होता
ग़ज़ल
जो तिरी नज़र में पिन्हाँ न ये ए'तिबार होता
साजिदा ज़ैदी