जो सूरज हो तो हर मंज़र उजाला क्यूँ नहीं करते
ये आठों पहर की रातें सवेरा क्यूँ नहीं करते
तअज्जुब है मुझी को अपनी महफ़िल में नहीं देखा
नहीं देखा अगर तुम ने तो देखा क्यूँ नहीं करते
चुराता है वो पहले नींद फिर शोख़ी से कहता है
ये शब भर जागते रहते हो सोया क्यूँ नहीं करते
हिसाब-ए-दोस्ताँ ऐ दिल ख़याल-ए-नेक है लेकिन
तुम्हारे पास भी दिल है तुम ऐसा क्यूँ नहीं करते
मिरे भाई अगर तैराक बनना चाहते हो तुम
तो दरिया के किनारे से किनारा क्यूँ नहीं करते
उठा कर रोज़ ले जाता है मेरे ख़्वाब का मंज़र
वो मुझ से रोज़ कहता है भरोसा क्यूँ नहीं करते
तो दिन को इश्क़ की बातें समझ ही में नहीं आएँ
समझ ही में नहीं आईं तो समझा क्यूँ नहीं करते
दिलों का क़र्ज़ रक़मों से अदा होता नहीं 'ख़ालिद'
बहुत आसाँ है ये कहना तक़ाज़ा नहीं करते
ग़ज़ल
जो सूरज हो तो हर मंज़र उजाला क्यूँ नहीं करते
ख़ालिद महमूद