जो शख़्स तुझ को फ़रिश्ता दिखाई देता है
वो आइने से डरा सा दिखाई देता है
किया था दफ़्न जिसे फ़र्श के तले कल रात
वो आज छत से उतरता दिखाई देता है
तिरी निगाह में मुमकिन है कुछ अटक जाए
मुझे तो सिर्फ़ अँधेरा दिखाई देता है
सवाल ज़ेहन में चुभते हैं नश्तरों की तरह
ये ख़ून भी मुझे होता दिखाई देता है
ख़ला में डूब चुकी है निगाह जब मेरी
वो पूछते हैं तुझे क्या दिखाई देता है
निगलता जाता है चुप-चाप ख़ुश्क जंगल उसे
ये आफ़्ताब तो ठंडा दिखाई देता है
नक़ाब बदलो कुछ ऐसे कि मो'जिज़ा हो जाए
हुजूम वर्ना बिखरता दिखाई देता है
तुम्हारी याद के दरिया तमाम सूख चले
जहाँ-तहाँ मुझे सहरा दिखाई देता है
सदाएँ गूँजती रहती हैं रात-भर किस की
मकान वैसे तो सूना दिखाई देता है
जो पेड़ तुम ने लगाया था मेरे आँगन में
वो इस बरस मुझे गिरता दिखाई देता है
ग़ज़ल
जो शख़्स तुझ को फ़रिश्ता दिखाई देता है
आबिद आलमी