जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
मैं पयम्बर तो नहीं मेरा कहा कैसे हो
दिल के हर ज़र्रे पे है नक़्श मोहब्बत उस की
नूर आँखों का है आँखों से जुदा कैसे हो
जिस को जाना ही नहीं उस को ख़ुदा क्यूँ मानें
और जिसे जान चुके हैं वो ख़ुदा कैसे हो
उम्र सारी तो अँधेरे में नहीं कट सकती
हम अगर दिल न जलाएँ तो ज़िया कैसे हो
जिस से दो रोज़ भी खुल कर न मुलाक़ात हुई
मुद्दतों बअ'द मिले भी तो गिला कैसे हो
दूर से देख के मैं ने उसे पहचान लिया
उस ने इतना भी नहीं मुझ से कहा कैसे हो
वो भी इक दौर था जब मैं ने तुझे चाहा था
दिल का दरवाज़ा है हर वक़्त खुला कैसे हो
जब कोई दाद-ए-वफ़ा चाहने वाला न रहा
कौन इंसाफ़ करे हश्र बपा कैसे हो
आईने में भी नज़र आती है सूरत तेरी
कोई मक़्सूद-ए-नज़र तेरे सिवा कैसे हो
किन निगाहों से उसे देख रहा हूँ 'शहज़ाद'
मुझ को मालूम नहीं उस को पता कैसे हो
ग़ज़ल
जो शजर सूख गया है वो हरा कैसे हो
शहज़ाद अहमद