जो पी रहा है सदा ख़ून बे-गुनाहों का
वो शख़्स तो है नुमाइंदा कज-कुलाहों का
जिसे भी चाहा सलीब-ए-सितम पे खींच दिया
फ़क़ीह-ए-शहर तो क़ाइल नहीं गवाहों का
हम अहल-ए-दिल हैं सदाक़त हमारा शेवा है
हमें डरा न सकेगा जलाल शाहों का
हर एक क़द्र को रुस्वाइयाँ मिलीं इन से
अजीब सा रहा किरदार-ए-दीं पनाहों का
मिरी ज़मीन को मक़बूज़ा तू ज़मीं न समझ
कि टूटने को है अफ़्सूँ तिरी सिपाहों का
अभी तो अज़्म-ए-सफ़र भी किया न था हम ने
कि जाग उट्ठा हर इक ज़र्रा शाह-राहों का
ग़ज़ल
जो पी रहा है सदा ख़ून बे-गुनाहों का
बख़्श लाइलपूरी