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जो मेरी आह से निकला धुआँ है मेरी मिट्टी का | शाही शायरी
jo meri aah se nikla dhuan hai meri miTTi ka

ग़ज़ल

जो मेरी आह से निकला धुआँ है मेरी मिट्टी का

जमाल ओवैसी

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जो मेरी आह से निकला धुआँ है मेरी मिट्टी का
मिरे अंदर निहाँ आतिश-फ़िशाँ है मेरी मिट्टी का

दिए हैं ताक़ पर रौशन मगर ज़ौ मेरे अंदर है
जो कुछ कुछ तीरगी है वो समाँ है मेरी मिट्टी का

मिरे जल्वों की पामाली न देखी जाएगी मुझ से
हुनर कुछ इस तरह से राएगाँ है मेरी मिट्टी का

ज़रूर उस की शबाहत मेरी सोचों से अलग होगी
तसव्वुर में जो देखा है गुमाँ है मेरी मिट्टी का

समुंदर और दरिया हैं पुराने आश्ना मेरे
बरसता है जो पानी मेहरबाँ है मेरी मिट्टी का

मिरे अशआ'र में आफ़ाक़-ओ-अनफ़ुस की कहानी है
मिरा हर लफ़्ज़-ए-शीरीं तर्जुमाँ है मेरी मिट्टी का

उवैसी क़ल्ब-ओ-जाँ करते रहे शेर-ओ-अदब को हम
अगरचे ये भी जिंस-ए-राएगाँ है मेरी मिट्टी का