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जो मस्त-ए-जाम-ए-बादा-ए-इरफ़ाँ न हो सका | शाही शायरी
jo mast-e-jam-e-baada-e-irfan na ho saka

ग़ज़ल

जो मस्त-ए-जाम-ए-बादा-ए-इरफ़ाँ न हो सका

शौक़ बहराइची

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जो मस्त-ए-जाम-ए-बादा-ए-इरफ़ाँ न हो सका
वो जानवर ही रह गया इंसाँ न हो सका

जो भी शरीक-ए-महफ़िलए-ए-रिंदाँ न हो सका
वो बेवक़ूफ़ कामिल-ए-ईमाँ न हो सका

वाइज़ भी हैं वो ज़ात-ए-गिरामी कि अल-हज़र
हम-पल्ला जिन का दहर में शैताँ न हो सका

फ़ितरत बदल सकी न कभी मेरे दोस्त की
लहबड़ किसी तरह से भी टोइयाँ न हो सका

दामान-ए-हश्र आ ही गया काम हश्र में
नेक-टाई बन गई जो गिरेबाँ न हो सका

इंसानों के ज़मीर बिके कौड़ियों के मोल
ग़ल्ला मगर गिराँ रहा अर्ज़ां न हो सका

ये कश्मकश ज़माने की अल्लाह की पनाह
जीना तो जीना मरना भी आसाँ न हो सका

वो होंगे क्या किसी से ज़माने में हम-नबर्द
जिन पागलों से चाक गिरेबाँ न हो सका

बतला रही है शैख़ की तक़रीर-ए-मुज़्महिल
कुछ आज हलवे-मांडे का सामाँ न हो सका

एड़ी रगड़ के नज्द में दीवाना मर गया
और उस के नाम अलॉट बयाबाँ न हो सका

रहज़न लिबास-ए-राहबरी में न छुप सका
आलू ने लाख चाहा पे घोईआँ न हो सका

दिलचस्प हो सका न कभी शैख़ का बयाँ
कव्वा ग़रीब मुर्ग़-ए-ख़ुश-अलहाँ न हो सका

ऐ 'शौक़' रोना आता है उस बद-नसीब पर
जो ख़ाक-रूब-ए-कूचा-ए-जानाँ न हो सका