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जो मर गए तिरी चश्म-ए-सियाह के मारे | शाही शायरी
jo mar gae teri chashm-e-siyah ke mare

ग़ज़ल

जो मर गए तिरी चश्म-ए-सियाह के मारे

मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार

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जो मर गए तिरी चश्म-ए-सियाह के मारे
न हश्र को भी उठेंगे निगाह के मारे

मिसाल-ए-बर्ग-ए-ख़िज़ाँ सरसर-ए-फ़िराक़ से आह
पटकते फिरते हैं सर हम तबाह के मारे

अज़ीज़ो दिल न दो यूसुफ़ की कर के चाह कभी
कि जा के चाह में गिरते हैं चाह के मारे

इलाही हश्र में आवाज़-ए-सूर सुन क्यूँकर
उठूँगा आह मैं बार-ए-गुनाह के मारे

हज़र कर आह-ए-दिल-नातवाँ से ऐ ज़ालिम
कि कोह टल गए हैं बर्ग-ए-काह के मारे

न समझियो कि फ़लक पर सितारे हैं रौशन
हैं रख़्ना-दार मिरे तीर-ए-आह के मारे

बिसान-ए-नक़्श-ए-क़दम तेरे दर से अहल-ए-वफ़ा
उठाते सर नहीं हरगिज़ तबाह के मारे

उजड़ गए ख़िरद-ओ-सब्र-ओ-होश-ओ-ताब-ओ-तवाँ
उसी के नाज़-ओ-अदा की सिपाह के मारे

जहान-ए-दिल ऐ 'जहाँदार' एक दिन न बसा
जफ़-ए-शाह-ए-तग़ाफ़ुल-शिआर के मारे