जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
ब-इज्ज़-ए-शौक़ ब-हाल-ए-ख़राब निकलेगा
जो रंग बाँट के जाता है तिनके तिनके को
अदू ज़मीं का यही आफ़्ताब निकलेगा
भरी हुई है कई दिन से धुँद गलियों में
न जाने शहर से कब ये अज़ाब निकलेगा
जो दे रहे हो ज़मीं को वही ज़मीं देगी
बबूल बोए तो कैसे गुलाब निकलेगा
अभी तो सुब्ह हुई है शब-ए-तमन्ना की
बहेंगे अश्क तो आँखों से ख़्वाब निकलेगा
मिरे गुनाह बहुत हैं मगर तक़ाबुल में
उसी का लुत्फ़-ओ-करम बे-हिसाब निकलेगा
मिला किसी को न 'दानिश' कुछ आरज़ू के ख़िलाफ़
पस-ए-फ़ना भी यही इंतिख़ाब निकलेगा
ग़ज़ल
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
एहसान दानिश