जो ख़ास बंदे हैं वो बंदा-ए-अवाम नहीं
हज़ार बार जो यूसुफ़ बिके ग़ुलाम नहीं
भला हो क्या दिल ज़ाहिद में सोज़-ए-उल्फ़त-ए-हक़
कभी जलाने के क़ाबिल चराग़-ए-ख़ाम नहीं
गिला है चश्म-ए-सुख़न-गो से ख़ामुशी का हमें
दहन के होने न होने में कुछ कलाम नहीं
तू आफ़्ताब है ज़ुल्फ़-ए-सियह नहीं तो न हो
चराग़-ए-रोज़ को कुछ एहतियाज-ए-शाम नहीं
अज़ीज़ आशिक़-ए-गुमनाम का है दिल उस को
नगीं वो हाथ में रखता है जिस में नाम नहीं
बस एक हाथ में दो हो के पढ़ दोगाना-ए-इश्क़
जो बे-नमाज़ है वो क़ाबिल-ए-सलाम नहीं
ये सर झुकाना ये मुँह फेरना है माने' दीद
मिरी नमाज़ में सज्दा नहीं सलाम नहीं
वो मुझ पे मरने लगी जो है मिरे दरपय-ए-क़त्ल
इलाही इस के सिवा और इंतिक़ाम नहीं
फ़िराक़-ए-यार में दस्त-ए-सुबू उड़ाते हैं ख़ाक
ये गर्द-बाद है गर्दिश में अपना जाम नहीं
न हँस रुलाएगा तुझ को ख़ुमार-ए-बादा-ए-ऐश
मय-नशात तो इस बज़्म में मुदाम नहीं
फँसे न क़ैद-ए-तअ'ल्लुक़ में जो कि है आज़ाद
चमन में ताइर-ए-निकहत असीर-ए-दाम नहीं
वो दिल हो चाक नहीं इश्क़ का निशाँ जिस में
नगीं वो टूटे मोहब्बत का जिस में नाम नहीं
रहेगा हिज्र का दिन कब कटे अगर शब-ए-वस्ल
मुदाम रोज़-ए-क़यामत को भी क़याम नहीं
बने जो बाल का फंदा तुम्हारी तेग़ का बाल
तो मुर्ग़-ए-जाँ के लिए बेहतर इस से दाम नहीं
मय-दो-आतिशा-ए-कुफ़्र-ओ-दीं से ख़ल्क़ है मस्त
मगर शराब ये हम-मशरबो हराम नहीं
पुकारा अपना गदा कह के मुझ को ऐ शह-ए-हुस्न
फ़क़ीर हूँ तिरे दर का 'वज़ीर' नाम नहीं
ग़ज़ल
जो ख़ास बंदे हैं वो बंदा-ए-अवाम नहीं
ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

