जो होंटों पे मोहर-ए-ख़मोशी लगा दी
तो मिल कर निगाहों ने ताली बजा दी
किसी के लिए मैं परेशाँ नहीं हूँ
रक़ीबों ने जाने कहाँ की उड़ा दी
जुनूँ अपनी तक़दीर से खेलता है
मिटाई बना दी बनाई मिटा दी
अभी नूर ओ ज़ुल्मत में चलती रहेगी
न वो इस के आदी न मैं उस का आदी
ख़बर कारवाँ की न हो रहज़नों को
यही सोच कर मैं ने मिशअल बुझा दी
गुलों ने जब इल्ज़ाम रक्खा ख़िज़ाँ पर
तो वो ख़ार को देख कर मुस्कुरा दी
तवक़्क़ो' नहीं थी 'मुज़फ़्फ़र' से उन को
खरी बात सुन कर क़यामत उठा दी
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ग़ज़ल
जो होंटों पे मोहर-ए-ख़मोशी लगा दी
मुज़फ़्फ़र हनफ़ी