जो है अर्श पर वही फ़र्श पर कोई ख़ास उस का मकाँ नहीं
वो यहाँ भी है वो वहाँ भी है वो कहीं नहीं वो कहाँ नहीं
ये नसीब तेरे शहीद का कि कमाल-ए-शौक़ था दीद का
जो गिला भी है तो वो तर नहीं जो छुरी भी हर तो रवाँ नहीं
मैं वो सर्व-ए-बाग़-ए-वजूद हूँ मैं वो गुल हूँ शम-ए-हयात का
जिसे फ़स्ल-ए-गुल की ख़ुशी नहीं जिसे रंज-ए-बाद-ए-ख़िज़ाँ नहीं
जो उठे तो सीना उभार कर जो चले तो ठोकरें मार कर
नए आप ही तो जवान हैं कोई क्या जहाँ में जवाँ नहीं
किधर उड़ गया मिरा क़ाफ़िला कि ज़मीन फट के समा गया
न ग़ुबार उठा न जरस बजा कहीं नक़्श-ए-पा का निशाँ नहीं
ये मय-ए-फ़रंग की कश्तियाँ भी सफ़ीना-हा-ए-नजात हैं
कभी उस का बेड़ा न पार हो जो मुरीद-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं
उठो 'क़द्र' उन पे न जान दो अजी जान है तो जहान है
कोई काम ऐसा भी करता है अरे मियाँ नहीं अरे मियाँ नहीं
ग़ज़ल
जो है अर्श पर वही फ़र्श पर कोई ख़ास उस का मकाँ नहीं
क़द्र बिलगरामी