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जो दिल में खटकती है कभी कह भी सकोगे | शाही शायरी
jo dil mein khaTakti hai kabhi kah bhi sakoge

ग़ज़ल

जो दिल में खटकती है कभी कह भी सकोगे

शहज़ाद अहमद

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जो दिल में खटकती है कभी कह भी सकोगे
या उम्र भर ऐसे ही परेशान फिरोगे

पत्थर की है दीवार तो सर फोड़ना सीखो
ये हाल रहेगा तो जियोगे न मरोगे

तूफ़ान उठाओगे कभी अपने जहाँ में
या आँख के पानी ही को सैलाब कहोगे

सोए हो अंधेरे में चराग़ों को बुझा कर
आएगा नज़र ख़ाक अगर जाग उठोगे

अपनी ही हक़ीक़त को न पहचानने वालो
तुम पर्दा-ए-अफ़्लाक को क्या चाक करोगे

ऐ बर्क़ की मानिंद गुज़रते हुए लम्हो
क्या आँख झपकने की भी मोहलत नहीं दोगे

रौशन भी करोगे कभी तारीकी-ए-शब को
या शम्अ की मानिंद पिघलते ही रहोगे

अर्ज़ां है बहुत ख़ून फ़रोज़ाँ है बहुत शाम
क्या अपनी ही महफ़िल में चराग़ाँ न करोगे

माना कि कठिन राह है दुश्वार सफ़र है
क्या एक क़दम भी न मिरे साथ चलोगे

गुज़रे हुए लम्हे की वो बे-नाम कसक हूँ
तुम जिस की तमन्ना में परेशान फिरोगे

चाहोगे निशाँ भी न रहे मेरा जहाँ में
गर ज़िक्र करोगे तो मिरा नाम न लोगे

ये गर्द-ए-सफ़र हाल वो कर देगी कि 'शहज़ाद'
तुम अपनी भी सूरत को न पहचान सकोगे