EN اردو
जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं | शाही शायरी
jo dekhiye to karam ishq par zara bhi nahin

ग़ज़ल

जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं

सबा अकबराबादी

;

जो देखिए तो करम इश्क़ पर ज़रा भी नहीं
जो सोचिए कि ख़फ़ा हैं तो वो ख़फ़ा भी नहीं

वो और होंगे जिन्हें मक़दरत है नालों की
हमें तो हौसला-ए-आह-ए-ना-रसा भी नहीं

हद-ए-तलब से है आगे जुनूँ का इस्तिग़्ना
लबों पे आप से मिलने की अब दुआ भी नहीं

हुसूल हो हमें क्या मुद्दआ' मोहब्बत में
अभी सलीक़ा-ए-इज़हार-ए-मुद्दआ भी नहीं

शगुफ़्त-ए-गुल में भी ज़ख़्म-ए-जिगर की सूरत है
किसी से एक तबस्सुम का आसरा भी नहीं

ज़हे हयात तबीअ'त है ए'तिदाल पसंद
नहीं हैं रिंद अगर हम तो पारसा भी नहीं

सुना तो करते थे लेकिन 'सबा' से मिल भी लिए
भला वो हो कि न हो आदमी बुरा भी नहीं