EN اردو
जो दर खुला है शिकस्ता मकाँ का हिस्सा है | शाही शायरी
jo dar khula hai shikasta makan ka hissa hai

ग़ज़ल

जो दर खुला है शिकस्ता मकाँ का हिस्सा है

माहिर अब्दुल हई

;

जो दर खुला है शिकस्ता मकाँ का हिस्सा है
मिरा यक़ीन फ़रेब-ए-गुमाँ का हिस्सा है

कहाँ से आई हरम में ये ख़ाक-ए-राह-गुज़र
वहीं पे डाल दो उस को जहाँ का हिस्सा है

किसी शिकस्ता जगह ठीक बैठता ही नहीं
दिल-ए-हज़ीं का ये टुकड़ा कहाँ का हिस्सा है

सफ़र नसीब हूँ साहिल से क्या ग़रज़ मुझ को
मिरा सफ़ीना तो आब-ए-रवाँ का हिस्सा है

अजब उसूल बने हैं यहाँ तिजारत के
किसी का सूद किसी के ज़ियाँ का हिस्सा है

फ़ज़ा-ए-आलम-ए-इंसानियत का अफ़्साना
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ का हिस्सा है

उसे ज़माने की गर्दिश मिटा नहीं सकती
ये ज़िंदगी नफ़स-ए-जावेदाँ का हिस्सा है

'वली' से ले के जो फैली है 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' तक
हमारा क़िस्सा उसी दास्ताँ का हिस्सा है

फ़लक मिसाल है 'माहिर' हमारी बस्ती भी
हमारा घर भी किसी कहकशाँ का हिस्सा है