जो चीज़ थी कमरे में वो बे-रब्त पड़ी थी
तन्हाई-ए-शब बंद-ए-क़बा खोल रही थी
आवाज़ की दीवार भी चुप-चाप खड़ी थी
खिड़की से जो देखा तो गली ऊँघ रही थी
बालों ने तिरा लम्स तो महसूस किया था
लेकिन ये ख़बर दिल ने बड़ी देर से दी थी
हाथों में नया चाँद पड़ा हाँप रहा था
रानों पे बरहना सी नमी रेंग रही थी
यादों ने उसे तोड़ दिया मार के पत्थर
आईने की ख़ंदक़ में जो परछाईं पड़ी थी
दुनिया की गुज़रते हुए पड़ती थीं निगाहें
शीशे की जगह खिड़की में रुस्वाई जड़ी थी
टूटी हुई मेहराब से गुम्बद के खंडर तक
इक बूढ़े मोअज़्ज़िन की सदा गूँज रही थी
ग़ज़ल
जो चीज़ थी कमरे में वो बे-रब्त पड़ी थी
आदिल मंसूरी