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जो चला आता है ख़्वाबों की तरफ़-दारी को | शाही शायरी
jo chala aata hai KHwabon ki taraf-dari ko

ग़ज़ल

जो चला आता है ख़्वाबों की तरफ़-दारी को

इनआम आज़मी

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जो चला आता है ख़्वाबों की तरफ़-दारी को
उस ने देखा ही नहीं आलम-ए-बे-ज़ारी को

पैरहन चाक न हो जाए मिरे ख़्वाबों का
कोई तब्दील करे रस्म-ए-अज़ादारी को

चारागर जब तुझे एहसास नहीं है तो फिर
कौन समझे भला बीमार की बीमारी को

मैं ने सोचा था जो बिकने से बचा लेंगे मुझे
दौड़ कर आए वही मेरी ख़रीदारी को

आलम-ए-ख़्वाब में है जिस की हुकूमत यारो
वो समझता है बग़ावत मिरी बेदारी को

दिल के सहरा को समुंदर से बचा ले मौला
इस क़दर सहल न कर तू मिरी दुश्वारी को

कितने भोले हैं तिरी बज़्म में बैठे हुए लोग
सच समझते हैं सभी तेरी अदाकारी को