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जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है | शाही शायरी
jo bhi minjumla-e-ashufta sara hota hai

ग़ज़ल

जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है

सय्यद आबिद अली आबिद

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जो भी मिंजुमला-ए-आशुफ़्ता सरा होता है
ज़ीनत-ए-महफ़िल-ए-साहब-नज़राँ होता है

यही दिल जिस को शिकायत है गिराँ-जानी की
यही दिल कार-गह-ए-शीशा-गिराँ होता है

शाख़-ए-गुलज़ार के साए में कहाँ दम लीजे
कि यहाँ ख़ून का सैल-ए-गुज़राँ होता है

किस को दिखलाइए अपनों की मलामत का समाँ
कि ये उस्लूब हदीस-ए-दिगराँ होता है

किस को बतलाईए वो राब्ता-ए-नाज़-ओ-नियाज़
उन की महफ़िल में जो ऐ दीदा-वराँ होता है

कभी करती है तजल्ली निगरानी दिल की
कभी दिल सू-ए-तजल्ली-निगराँ होता है

मुझ पे होते हैं ग़म-ए-दिल के सहीफ़े नाज़िल
जिन में अफ़्साना-ए-आली-गुहराँ होता है

दिल भी देता है मुझे मश्वरा-ए-तर्क-ए-वफ़ा
कुछ तक़ाज़ा-ए-जहान-ए-गुज़राँ होता है

मैं तो हूँ शेफ़्ता-ए-रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल 'आबिद'
कि यही शाहिद-ए-ख़ूनीं-जिगराँ होता है