जो भी अंजाम हो आग़ाज़ किए देते हैं
मौसमों को नज़र-अंदाज़ किए देते हैं
कुछ तो पहले से था रग रग में शुजाअत का सुरूर
कुछ हमें आप भी जाँ-बाज़ किए देते हैं
हद से आगे जो परिंदे नहीं उड़ने वाले
हादसे उन को भी शहबाज़ किए देते हैं
दश्त ओ सहरा ये समुंदर ये जज़ीरे ये पहाड़
मुन्कशिफ़ हम पे कई राज़ किए देते हैं
शब-ए-ज़ुल्मत न हो ग़मगीं कि जला कर ख़ुद को
नूर से तुझ को सर-अफ़राज़ किए देते हैं
शहर-ए-जाँ पर कई बरसों से मुसल्लत है जुमूद
छेड़ कर दिल को चलो साज़ किए देते हैं
हम कि ज़िंदा हैं अभी ज़ुल्फ़-ए-ग़ज़ल आ तुझ को
फिर अता निकहत-ए-शीराज़ किए देते हैं
कौन आता है अयादत के लिए देखें 'फ़राग़'
अपने जी को ज़रा ना-साज़ किए देते हैं
ग़ज़ल
जो भी अंजाम हो आग़ाज़ किए देते हैं
फ़राग़ रोहवी