जो बाद-ए-मर्ग भी दिल को रही कनार में जा
तो सो चुका मैं फ़राग़त से बस मज़ार में जा
तमाम दर्द हों मालूम कुछ नहीं कि कहाँ
तिरे ख़दंग ने की है तन-ए-नज़ार में जा
यही तो रिज़्क़ है बाद-ए-फ़ना मिरा ज़ालिम
समझ के बर्क़-ए-शरर-बार ख़ारज़ार में जा
क़दम समझ के तू रख तिश्नगान-ए-हसरत से
तिही नहीं है टुक उल्फ़त की रहगुज़ार में जा
उठी जो कुल्फ़त-ए-दिल कम हो मेरी कुल्फ़त में
ग़ुबार जैसे कि मिल जाए है ग़ुबार में जा
न हो कहीं कि दो-सद-ख़ून-ए-खुफ़्ता हों बेदार
सबा जो जाए तो आहिस्ता कू-ए-यार में जा
ख़दंग-ए-ग़म्ज़ा तो ख़ार-शिगाफ़ है उस का
छुपाए जी को कोई कौन से हिसार में जा
ग़ज़ल
जो बाद-ए-मर्ग भी दिल को रही कनार में जा
ममनून निज़ामुद्दीन