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जो ब-ईं ग़म भी शादमाँ गुज़री | शाही शायरी
jo ba-in gham bhi shadman guzri

ग़ज़ल

जो ब-ईं ग़म भी शादमाँ गुज़री

शफ़क़त काज़मी

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जो ब-ईं ग़म भी शादमाँ गुज़री
जाने वो ज़िंदगी कहाँ गुज़री

दिल से अँदेशा-ए-ख़िज़ाँ न गया
गो बहारों के दरमियाँ गुज़री

जितनी मुद्दत मैं उन से दूर रहा
उतनी मुद्दत बला-ए-जाँ गुज़री

याद रखेंगे आसमाँ वाले
मुझ पे जो ज़ेर-ए-आसमाँ गुज़री

थी मिरे उन के दरमियाँ जो बात
वो ज़माने पे क्यूँ गराँ गुज़री

किस को मालूम तल्ख़ियाँ मेरी
यूँ तो कहने को शादमाँ गुज़री

मुझ पे गुज़री जो उम्र भर 'शफ़क़त'
वो किसी और पर कहाँ गुज़री