जो अश्क बन के हमारी पलक पे बैठा था
तुम्हें भी याद है अब तक वो ख़्वाब किस का था
हमेशा पूछती रहती है रास्तों की हवा
यूँही रुके हो यहाँ या किसी ने रोका था
लगा हुआ है अभी तक ये जान को खटका
कि उस ने जाते हुए क्यूँ पलट के देखा था
ख़बर किसे है किसे पूछिए बताए कौन
पुराने क़स्र में क्या सुब्ह-ओ-शाम जलता था
वजूद है ये कहीं बह न जाए लहरों में
गिरा गिरा के पलक आबजू को रोका था
फ़ज़ाएँ ऐसी तो 'आदिल' कभी न महकी थीं
हवा के हाथ पे ये किस का नाम लिक्खा था
ग़ज़ल
जो अश्क बन के हमारी पलक पे बैठा था
आदिल रज़ा मंसूरी