जो ऐन वस्ल में आराम से नहीं वाक़िफ़
वो मतलब-ए-दिल-ए-ख़ुद-काम से नहीं वाक़िफ़
हँसा चमन में जो दिल देख सूरत-ए-सय्याद
ये मुर्ग़ दाने से और दाम से नहीं वाक़िफ़
तमाम शहर में जिस के लिए हुए बद-नाम
वो अब तलक भी मिरे नाम से नहीं वाक़िफ़
हर एक इश्क़ के कब क़ाएदे से महरम है
हनूज़ शैख़ अलिफ़ लाम से नहीं वाक़िफ़
हज़ार हैफ़ यहाँ छत से लग गईं आँखें
वहाँ वो शोख़ लब-ए-बाम से नहीं वाक़िफ़
दिला अबस तलब-ए-बोसा है तुझे उस से
वो लाल-ए-लब कि लब-ए-जाम से नहीं वाक़िफ़
सजी है लेक उसे ज़र कुलाह गुज़री की
फ़क़ीर अतलस-ओ-पीलाम से नहीं वाक़िफ़
तपिश से दिल की ख़बर होवे है यहाँ मालूम
मैं तर्ज़-ए-नामा-ओ-पैग़ाम से नहीं वाक़िफ़
न ख़ुश विसाल में हो रख तू याद-ए-हिज्र 'नसीर'
मगर तू गर्दिश-ए-अय्याम से नहीं वाक़िफ़
ग़ज़ल
जो ऐन वस्ल में आराम से नहीं वाक़िफ़
शाह नसीर