जो आँसुओं की ज़बाँ को मियाँ समझने लगे
समुंदरों का वो दर्द-ए-निहाँ समझने लगे
ये जब से जाना कि ज़हर-ए-बदन निकलता है
हम आँसुओं को भी जिंस-ए-गिराँ समझने लगे
जो टपके दामन-ए-हस्ती पे अश्क-ए-ख़ूँ मेरे
तो अहल-ए-ज़र उसे गुल-कारियाँ समझने लगे
सरों पे ओढ़ के मज़दूर धूप की चादर
ख़ुद अपने सर पे उसे साएबाँ समझने लगे
शजर को अपनी ज़मीं से लिपट के रहना है
ये बात उड़ते परिंदे कहाँ समझने लगे
मैं चुप हुआ था कि टकराव ख़त्म हो जाए
वो मेरे सब्र को कमज़ोरियाँ समझने लगे
वो जब से आ गए मेहमान बन के आँखों में
हम अपने दिल के खंडर को मकाँ समझने लगे
ग़ज़ल
जो आँसुओं की ज़बाँ को मियाँ समझने लगे
शारिब मौरान्वी