EN اردو
जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी | शाही शायरी
jitni hum chahte the utni mohabbat nahin di

ग़ज़ल

जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी

अहमद अशफ़ाक़

;

जितनी हम चाहते थे उतनी मोहब्बत नहीं दी
ख़्वाब तो दे दिए उस ने हमें मोहलत नहीं दी

बिकता रहता सर-ए-बाज़ार कई क़िस्तों में
शुक्र है मेरे ख़ुदा ने मुझे शोहरत नहीं दी

उस की ख़ामोशी मिरी राह में आ बैठी है
मैं चला जाता मगर उस ने इजाज़त नहीं दी

हम तिरे साथ तिरे जैसा रवय्या रखते
देने वाले ने मगर ऐसी तबीअत नहीं दी

मुझ से जो तंग हुआ मैं ने उसे छोड़ दिया
उस को ख़ुद छोड़ के जाने की भी ज़हमत नहीं दी

हम थे मोहतात तअल्लुक़ में तवाज़ुन रक्खा
पास-ए-उल्फ़त रहा हद-दर्जा अक़ीदत नहीं दी

जिस क़दर टूट के चाहा उसे हम ने 'अश्फ़ाक़'
उस सख़ी ने हमें उतनी भी तो नफ़रत नहीं दी