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जितने वहशी हैं चले जाते हैं सहरा की तरफ़ | शाही शायरी
jitne wahshi hain chale jate hain sahra ki taraf

ग़ज़ल

जितने वहशी हैं चले जाते हैं सहरा की तरफ़

राही मासूम रज़ा

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जितने वहशी हैं चले जाते हैं सहरा की तरफ़
कोई जाता ही नहीं ख़ेमा-ए-लैला की तरफ़

हम हरीफ़ों की तमन्ना में मरे जाते हैं
उँगलियाँ उठने लगीं दीदा-ए-बीना की तरफ़

हर तरफ़ सुब्ह ने इक जाल बिछा रक्खा है
ओस की बूँद कहाँ जाती है दरिया की तरफ़

हम भी अमृत के तलबगार रहे हैं लेकिन
हाथ बढ़ जाते हैं ख़ुद ज़हर-ए-तमन्ना की तरफ़