जितने वहशी हैं चले जाते हैं सहरा की तरफ़
कोई जाता ही नहीं ख़ेमा-ए-लैला की तरफ़
हम हरीफ़ों की तमन्ना में मरे जाते हैं
उँगलियाँ उठने लगीं दीदा-ए-बीना की तरफ़
हर तरफ़ सुब्ह ने इक जाल बिछा रक्खा है
ओस की बूँद कहाँ जाती है दरिया की तरफ़
हम भी अमृत के तलबगार रहे हैं लेकिन
हाथ बढ़ जाते हैं ख़ुद ज़हर-ए-तमन्ना की तरफ़

ग़ज़ल
जितने वहशी हैं चले जाते हैं सहरा की तरफ़
राही मासूम रज़ा