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जिस्म-ओ-जाँ किस ग़म का गहवारा बने | शाही शायरी
jism-o-jaan kis gham ka gahwara bane

ग़ज़ल

जिस्म-ओ-जाँ किस ग़म का गहवारा बने

हनीफ़ फ़ौक़

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जिस्म-ओ-जाँ किस ग़म का गहवारा बने
आग से निकले तो अँगारा बने

शाम की भीगी हुई पलकों में फिर
कोई आँसू आए और तारा बने

लौह-ए-दिल पे नक़्श अब कोई नहीं
वक़्त है आ जाओ शह-पारा बने

अब किसी लम्हे को मंज़िल मान लें
दर-ब-दर फिरते हैं बंजारा बने

कम हो गर झूटे सितारों की नुमूद
ये ज़मीं भी अंजुमन-आरा बने

जुर्म-ए-ना-कर्दा-गुनाही है बहुत
ज़िंदगी ही क्यूँ न कफ़्फ़ारा बने

तोड़ डालें हम निज़ाम-ए-ख़स्तगी
ये जहाँ कोहना दोबारा बने