जिस्म-ओ-जाँ किस ग़म का गहवारा बने
आग से निकले तो अँगारा बने
शाम की भीगी हुई पलकों में फिर
कोई आँसू आए और तारा बने
लौह-ए-दिल पे नक़्श अब कोई नहीं
वक़्त है आ जाओ शह-पारा बने
अब किसी लम्हे को मंज़िल मान लें
दर-ब-दर फिरते हैं बंजारा बने
कम हो गर झूटे सितारों की नुमूद
ये ज़मीं भी अंजुमन-आरा बने
जुर्म-ए-ना-कर्दा-गुनाही है बहुत
ज़िंदगी ही क्यूँ न कफ़्फ़ारा बने
तोड़ डालें हम निज़ाम-ए-ख़स्तगी
ये जहाँ कोहना दोबारा बने
ग़ज़ल
जिस्म-ओ-जाँ किस ग़म का गहवारा बने
हनीफ़ फ़ौक़