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जिसे मैं समझता हूँ क़ातिल यही है | शाही शायरी
jise main samajhta hun qatil yahi hai

ग़ज़ल

जिसे मैं समझता हूँ क़ातिल यही है

इरम लखनवी

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जिसे मैं समझता हूँ क़ातिल यही है
मोहब्बत इसी से है मुश्किल यही है

अदावत हुई बर्क़ से बाग़बाँ से
नशेमन बनाने का हासिल यही है

तड़पना बराबर तड़पते ही रहना
तिरे दर पे अंदाज़-ए-बिस्मिल यही है

बहुत दूर मंज़िल मगर हर क़दम पर
थकन का तक़ाज़ा कि मंज़िल यही है

मिरे क़त्ल का ज़िक्र है और वो चुप है
ख़मोशी न कह दे कि क़ातिल यही है

मुझे तो हँसी अपने ग़म पर न आती
मगर क्या करूँ रंग-ए-महफ़िल यही है

वहाँ से 'इरम' हम हटा लाए कश्ती
यहाँ ये समझना था साहिल यही है