जिस सम्त नज़र जाए मेला नज़र आता है
हर आदमी इस पर भी तन्हा नज़र आता है
सौदा-ए-दिल-ओ-दीं या सौदा-ए-दिल-ओ-दुनिया
आशिक़ को तो दोनों में घाटा नज़र आता है
अंधों को तिरे ऐ हुस्न अब मिल गई बीनाई
अब इश्क़ का हर जज़्बा नंगा नज़र आता है
पस्ती से अगर देखो नीचा भी है कुछ ऊँचा
ऊँचा भी बुलंदी से नीचा नज़र आता है
क्या शिकवा तअक़्क़ुल के ख़ामोश तहय्युर से
जब अपना तसव्वुर भी गूँगा नज़र आता है
ऐ नाज़-ए-ख़ुद-आराई दे ज़र्फ़ को पहनाई
घुटता हुआ क़तरे में दरिया नज़र आता है
रहमत भी तिरी शायद कुछ कान की ऊँची है
इंसाफ़ भी तेरा कुछ अंधा नज़र आता है
नालाँ हैं 'जमील' अपनी आँखों से कि अब उन को
सूरज का पुजारी भी अंधा नज़र आता है
ग़ज़ल
जिस सम्त नज़र जाए मेला नज़र आता है
जमील मज़हरी