जिस ने इक अहद के ज़ेहनों को जिला दी होगी
मेरे आवारा ख़यालात की बिजली होगी
ले उड़ी है तिरे हाथों की हिना पिछले पहर
मेरे उलझे हुए अफ़्कार की आँधी होगी
जितनी मिल जाएगी काँटों की चुभन ले लूँगा
जो भी हालत दिल-ए-बे-ताब की होगी होगी
हम न मानेंगे ख़मोशी है तमन्ना का मिज़ाज
हाँ भरी बज़्म में वो बोल न पाई होगी
मेरी ना-कामी-ए-हालात के धारे के सिवा
एक नद्दी भी तो बे-आब न बहती होगी
है 'रज़ा' आज का आलम तो असीर-ए-इबहाम
यार ज़िंदा हैं तो कल और तरक़्क़ी होगी
ग़ज़ल
जिस ने इक अहद के ज़ेहनों को जिला दी होगी
कालीदास गुप्ता रज़ा