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जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है | शाही शायरी
jis kun tujh gham sin dil-shigafi hai

ग़ज़ल

जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है

सिराज औरंगाबादी

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जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है
मरहम-ए-वस्ल उस कूँ शाफ़ी है

होश खोने को मय नहीं दरकार
गर्दिश-ए-चश्म-ए-मस्त काफ़ी है

बे-ख़ती में अयाँ है सब्ज़ा-ए-ख़त
तेरे आरिज़ में बस कि साफ़ी है

बख़्श मेरे गुनाह कूँ आ मिल
ख़त नहीं ये ख़त-ए-मुआफ़ी है

गुल-बदन कूँ कहो कि सैर कूँ आ
आज हर गुल चमन में लाफ़ी है

ग़ज़ब-ए-यार सीं न हो ग़मगीं
जौर नहीं मेहर की तलाफ़ी है

रिश्ता-ए-आह-ए-आतिशीं सें 'सिराज'
मुज कूँ हर रात शोला-बाफ़ी है