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जिस कूँ मुल्क-ए-बे-ख़ुदी का राज है | शाही शायरी
jis kun mulk-e-be-KHudi ka raj hai

ग़ज़ल

जिस कूँ मुल्क-ए-बे-ख़ुदी का राज है

सिराज औरंगाबादी

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जिस कूँ मुल्क-ए-बे-ख़ुदी का राज है
है ज़मीं तख़्त और बगूला ताज है

ख़्वाब में वो ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं देखनाँ
हक़ में मेरे लैलत-उल-मेराज है

देख कर लश्कर ग़नीम-ए-इश्क़ का
किश्वर-ए-अक़्ल-ओ-ख़िरद ताराज है

ऐ तबीब-ए-मेहरबाँ बीमार-ए-हिज्र
शर्बत-ए-दीदार का मुहताज है

यार की आँखों में है जैसी हया
चश्म-ए-नर्गिस में कहाँ ये लाज है

उस कमाँ-अबरू के तीर-ए-नाज़ का
सीना-चाकों का जिगर आमाज है

दिल मिरा तुझ ग़म सीं ऐ जान-ए-'सिराज'
बेशतर बे-ताब कल सीं आज है